1838 की वो रात जब गुलामी की जंजीरें टूटीं, जानें ब्रिटिश साम्राज्य में दास प्रथा का कैसे हुआअंत?
ब्रिटिश साम्राज्य में 1833 में गुलामी का अंत हुआ, जो एक ऐतिहासिक बदलाव था। आज से 192 साल पहले, जब Slavery Abolition Act लागू हुआ, तब लगभग 800,000 अफ्रीकी गुलामों को ब्रिटिश साम्राज्य में आज़ादी मिली। यह केवल कानून नहीं था, बल्कि एक आंदोलन, संघर्ष और उम्मीद का प्रतीक था, जिसने सैकड़ों सालों से चली आ रही अमानवीय प्रथा को समाप्त कर दिया।

आज से ठीक 192 साल पहले, ब्रिटिश साम्राज्य में वो ऐतिहासिक दिन आया था जब 8 लाख से ज़्यादा अफ्रीकी गुलामों को आज़ादी मिली थी. 31 जुलाई 1838 की रात 12 बजे, ब्रिटिश उपनिवेशों में गुलामी का आख़िरी पन्ना पलटा और एक नया युग शुरू हुआ स्वतंत्रता का युग. लेकिन यह आज़ादी एक झटके में नहीं मिली थी. इसके पीछे लगभग 50 साल लंबी जद्दोजहद थी और थी संघर्ष, आंदोलन, विद्रोह, न्याय और मानवता की पुकार.
जब माल की तरह बेचा जाता था इंसान
18वीं सदी में ब्रिटेन ने अटलांटिक दास व्यापार को एक “सिस्टम” की तरह विकसित कर लिया था. अफ्रीका से लाखों काले लोगों को जबरन उठाकर ब्रिटिश उपनिवेशों, खासकर कैरिबियन और अमेरिका में ले जाया जाता था. ये लोग चीनी, कपास, तंबाकू के बागानों में जानवरों की तरह काम करते थे. एक अनुमान के अनुसार, 1700 से 1810 के बीच लगभग 30 लाख अफ्रीकी गुलामों को ब्रिटिश जहाज़ों द्वारा लाया गया. लेकिन जैसे-जैसे ब्रिटेन में सामाजिक और धार्मिक चेतना जागी, वैसा-वैसा गुलामी के खिलाफ आवाज़ें भी उठने लगीं. खासकर कुछ धार्मिक समुदायों ने इसे सीधा मानवाधिकार हनन और ईश्वर के खिलाफ माना.
पहली क्रांति: 'क्वेकर' और विलियम विल्बरफोर्स की मुहिम
सबसे पहले आवाज़ उठाई 'क्वेकर' समुदाय ने – जिसे आज हम 'सोसायटी ऑफ फ्रेंड्स' कहते हैं. उन्होंने 1787 में एक संगठन बनाया: The Society for Effecting the Abolition of the Slave Trade. उनके साथ जुड़ गए कुछ असाधारण लोग विलियम विल्बरफोर्स, जो ब्रिटिश संसद में आवाज़ बन गए. थॉमस क्लार्कसन, जिन्होंने गुलामी की असली तस्वीरें और गवाह इकट्ठा किए. ओलाउदाह इक्वियानो, जो खुद एक पूर्व गुलाम थे और अपनी आपबीती ने हजारों लोगों की सोच बदल दी.
इन लोगों ने पुस्तिकाएं छपवाईं, संसद में गवाही दिलवाई, और ब्रिटेन के आम लोगों को बताया कि गुलामी सिर्फ विदेशों की कहानी नहीं है ये हमारे टैक्स से चल रही बर्बरता है. 1772 में एक बड़ा फैसला हुआ जिसमें लॉर्ड मंसफील्ड ने कहा कि इंग्लैंड में गुलामी का कोई कानूनी आधार नहीं है. ये फैसला था, लेकिन ब्रिटिश उपनिवेशों में दास प्रथा बदस्तूर जारी रही.
1807 का कानून और उसकी खामियाँ
लंबे संघर्ष के बाद, 1807 में ब्रिटिश संसद ने Slave Trade Act पास किया – जिसमें कहा गया कि ब्रिटिश जहाज अब गुलामों की तस्करी नहीं करेंगे. लेकिन हकीकत अलग थी. इस कानून में इतनी कमज़ोरियाँ थीं कि लोग इसे तोड़कर भी बच निकलते थे. अमल नहीं हुआ, और गुलामी की आग बुझने की बजाय और फैलती चली गई.
दूसरी लहर: महिलाएं, उद्योग और गुलामों का विद्रोह
1820 के दशक में गुलामी के खिलाफ आंदोलन एक नई दिशा में गया. इस बार महिलाएं सामने आईं. ब्रिटेन में 70 से ज़्यादा महिला संगठन बन गए जो घर-घर जाकर लोगों को गुलामी की हकीकत बताते थे, हस्ताक्षर अभियान चलाते थे, और बच्चों तक को इस आंदोलन से जोड़ते थे. इस दौरान ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति शुरू हो चुकी थी. व्यापार और पूंजी अब गुलामों पर निर्भर नहीं रही. चीनी और तंबाकू जैसे उत्पादों की जगह अब मशीनें और फैक्ट्रियां आर्थिक शक्ति बनने लगीं.
वहीं दूसरी ओर, कैरेबियन में खुद गुलामों ने विद्रोह शुरू कर दिया. जमैका, बारबाडोस और डेमेरारा जैसे इलाकों में कई बड़े आंदोलन हुए. इन गुलामों ने जान की परवाह किए बिना खुलेआम विरोध किया. इन आंदोलनों ने ब्रिटिश जनता की आंखें खोल दीं. अब सवाल सिर्फ कानून का नहीं था, सवाल था मानवता का.
1833 का क्रांतिकारी कानून
1832 में Reform Act पास हुआ. अब वो सांसद, जो गुलामों के समर्थन में थे, संसद से बाहर हो गए. नई संसद आई, नए विचारों के साथ. और फिर आया 28 अगस्त 1833 का दिन, जब Slavery Abolition Act पास हुआ. लेकिन इसमें भी एक चाल थी गुलामों को अभी भी “एप्रेंटिसशिप” यानी प्रशिक्षण के नाम पर 4 साल तक अपने मालिकों के अधीन रहना था. ये नाम बदला गया, हालत नहीं.
जिसके चार साल बाद, 31 जुलाई 1838, रात के बारह बजते ही ब्रिटिश साम्राज्य में बचे-खुचे 8 लाख गुलामों को आज़ादी मिली. इस ऐतिहासिक क्षण पर चर्चों में घंटियाँ बजीं, लोगों ने मोमबत्तियाँ जलाईं, और कैरेबियन के बागानों में गुलामों ने गले मिलकर रोते हुए एक-दूसरे को आज़ाद कहा. लेकिन सच्चाई ये थी कि मालिकों को तो ब्रिटिश सरकार ने £20 मिलियन (आज के अरबों रुपये) का मुआवज़ा दिया, लेकिन गुलामों को कुछ भी नहीं मिला. उनका संघर्ष आज़ादी तक तो पहुंचा, पर सम्मान और सुविधा की मंज़िल अभी भी दूर थी.
ब्रिटिश साम्राज्य में दास प्रथा का अंत सिर्फ एक कानून की जीत नहीं थी ये इंसानियत, संघर्ष, और सच्चाई की जीत थी. ये हमें बताता है कि जब तक लोग आवाज़ नहीं उठाते, अन्याय बना रहता है.
आज हम जिस आज़ादी में सांस ले रहे हैं, वो किसी और के संघर्ष की कीमत पर आई है. इसलिए ज़रूरी है कि हम इतिहास को याद रखें ताकि भविष्य में कभी कोई इंसान किसी और को 'गुलाम' न बना सके.
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