क्या अकबर सच में धर्मनिरपेक्ष था? जानिए शिक्षा और न्याय से जुड़े अनकहे किस्से
मुगल बादशाह अकबर को अक्सर 'महान' कहा जाता है, लेकिन क्या उन्होंने सच में जनता को न्याय और शिक्षा का अधिकार दिया? इस ब्लॉग में हम आपको ले चलेंगे अकबर के दरबार की गलियों में, जहां खुद बादशाह अदालत लगाकर लोगों की फरियाद सुनते थे। जानिए कैसे अकबर ने न्याय व्यवस्था को बदला, कैसे हिन्दू और मुस्लिम दोनों के रीति-रिवाजों का सम्मान किया, और शिक्षा के क्षेत्र में कैसे क्रांतिकारी बदलाव किए।

जब इतिहास की किताबों के पन्ने पलटे जाते हैं, तो मुगल सम्राट अकबर का नाम बड़े ही सम्मान और रहस्य के साथ सामने आता है. एक ओर उन्हें 'महान' कहा गया, तो दूसरी ओर आलोचक उन्हें एक तानाशाह भी कहते हैं. लेकिन हकीकत क्या है? क्या अकबर सच में तानाशाह थे या फिर एक ऐसे न्यायप्रिय राजा, जिसने न्याय और शिक्षा को आम जनता तक पहुंचाने का साहस किया?
इस सवाल का जवाब हमें उस दौर की न्यायिक व्यवस्था और अकबर के व्यक्तिगत हस्तक्षेपों में मिलता है. इतिहास के दस्तावेज़, खासकर अबुल फज़ल की 'आइन-ए-अकबरी', अकबर की सोच, उनकी नीतियों और जनता के प्रति उनके व्यवहार को सामने लाते हैं. आइए, उस दौर की गलियों में झांकते हैं जब एक बादशाह खुद जनता के मुकदमे सुनता था.
बादशाह जो खुद था सर्वोच्च न्यायाधीश
सोलहवीं सदी में भारत की न्याय व्यवस्था बहुत सीमित और बंटे हुए स्वरूप में थी. आम आदमी को इंसाफ मिलना मुश्किल था. लेकिन अकबर का राज वो अपवाद था, जिसने इस सोच को बदल दिया. 'मुगल भारत का इतिहास' नामक ग्रंथ के अनुसार, अकबर हर दिन साढ़े चार घंटे सिर्फ जनता की शिकायतें सुनने और न्याय देने में लगाते थे. गुरुवार के दिन वह विशेष रूप से ‘प्रधान न्यायाधीश’ की भूमिका निभाते हुए दरबार में बैठते थे. उनके साथ काज़ी, मुफ्ती और कोतवाल जैसे न्यायिक अधिकारी उपस्थित रहते थे.
अकबर ने न केवल दीवानी (सिविल) बल्कि फौजदारी (क्रिमिनल) मामलों में भी दखल देना शुरू किया. खास बात यह थी कि उनकी अदालत में फैसले के खिलाफ अपील करने का अधिकार भी था, जो उस दौर के लिए एक बड़ी बात थी.
इंसाफ की अदालती प्रक्रिया
अकबर की अदालत में केवल धर्म विशेष के हिसाब से फैसला नहीं होता था. यह एक ऐसी व्यवस्था थी जो कुरान के अनुसार काम करती थी, लेकिन जब हिन्दुओं के मामले होते, तो उनके धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाजों का भी उतना ही सम्मान होता. कोई भी बड़ा फैसला, खासकर मृत्युदंड, सीधे बादशाह की अनुमति से ही लागू किया जाता था. इसके बाद ‘काज़ी-उल-कुज्जात’ यानी प्रधान काज़ी की अनुमति भी अनिवार्य होती. हर प्रांत और परगना में काज़ी नियुक्त किए जाते, जो स्थानीय मामलों की सुनवाई करते.
इन अदालतों में तीन प्रमुख अधिकारी होते. काज़ी जो केस की सुनवाई करता, मुफ्ती जो कानून की व्याख्या करता, और मीर अदल जो अंतिम निर्णय सुनाता.
अपराध के अनुसार न्याय
उस दौर की सज़ाएं आज के मानकों से कठोर लग सकती हैं, लेकिन उस समय यह अपराध नियंत्रण का प्रभावी तरीका माना जाता था. अपराध की गंभीरता के अनुसार मृत्युदंड, कोड़े लगाना, हाथियों द्वारा कुचलवाना, कारावास और आर्थिक दंड जैसी सजाएं दी जाती थीं. गांवों में आज की तरह ही पंचायतें होती थीं, जहां छोटे-मोटे झगड़ों का निपटारा होता था. लेकिन अगर मामला गंभीर होता, तो उसे शाही अदालत तक ले जाया जाता.
शिक्षा सबके लिए एक समान
न्याय व्यवस्था सुधारने के बाद अकबर ने शिक्षा के क्षेत्र में भी कई क्रांतिकारी फैसले लिए. फतेहपुर सीकरी, आगरा, दिल्ली जैसे प्रमुख शहरों में मदरसों की स्थापना की गई, जिन्हें आर्थिक सहायता भी दी गई. इन संस्थानों में उच्चस्तरीय शिक्षक नियुक्त किए गए, और इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि शिक्षा केवल धार्मिक न हो बल्कि व्यावहारिक भी हो. हिन्दुओं के लिए अलग पाठशालाएं खोली गईं, जहां धर्मशास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, गणित, चिकित्सा, व्याकरण और दर्शन जैसे विषय पढ़ाए जाते थे. एक बड़ा बदलाव यह था कि अकबर ने अपने बेटों को भी हिंदी पढ़ाने की व्यवस्था की. उन्होंने स्पष्ट आदेश दिया कि सभी बच्चों को नैतिकता, कृषि, विज्ञान, गणित, इतिहास और गृह विज्ञान की शिक्षा दी जाए.
अबुल फज़ल ने अपनी किताब में उल्लेख किया है कि शहजादों को अरबी और फारसी के साथ-साथ संस्कृत, हिंदी, और भारतीय संस्कृति की भी शिक्षा दी जाती थी. इससे पता चलता है कि अकबर किसी एक धर्म या भाषा का पक्षधर नहीं था.
इतिहास में अकबर को एक ‘साम्राज्य विस्तारक’ या योद्धा के तौर पर ज्यादा जाना गया है, लेकिन उनके सामाजिक और न्यायिक सुधार उतने ही अहम हैं. उनके फैसलों में एक आम आदमी की परवाह थी, और उन्होंने धर्म, जाति, या वर्ग के आधार पर भेदभाव करने से हमेशा इंकार किया. अकबर ने जो न्याय व्यवस्था खड़ी की, वह केवल प्रशासनिक तंत्र का हिस्सा नहीं थी, बल्कि लोगों के दिलों में राजा के प्रति विश्वास जगाने का माध्यम भी बनी. यही वजह है कि अकबर का नाम आज भी 'अकबर द ग्रेट' के रूप में लिया जाता है.
मुगल इतिहास में अकबर का दौर न्याय, शिक्षा और सामाजिक सुधारों का प्रतीक माना जाता है. जहां दूसरे शासक अपने ऐशोआराम में मशगूल रहते थे, वहीं अकबर जनता के न्याय और शिक्षा की नींव रख रहा था. तो क्या अकबर तानाशाह था? शायद नहीं. इतिहास के आईने में देखें तो वह एक ऐसा शासक था, जिसने शासन को लोगों के जीवन से जोड़ा, न कि केवल तख्त और ताज तक सीमित रखा.
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