कौलान्तक पीठ के सिद्ध योगियों का महास्नान, गूंजा हर-हर महादेव
सिद्ध योगी और कौलान्तक पीठ के पीठाधीश्वर महायोगी सत्येंद्र नाथ ईशपुत्र ने अपने भैरव, भैरवियों के साथ तीर्थन नदी में पवित्र स्नान किया, बर्फीले पानी से भरी नदी और हाड कंपा देने वाली ठण्ड के बीच सभी ने पवित्र स्नान किया, भस्म से भरे हुए हिमालय के सिद्धों का स्नान 'हर हर महादेव' के उदघोष के साथ शुरू हुआ

महास्नान के दौरान सभी भैरव गण ने महासिद्ध ईशपुत्र को माला पहनाई, और सबसे पहले उन्हें महास्ना का अवसर दिया, कंपकंपा देने वाली ठंड में ठंडे पानी में कौलान्तक पीठ के शाही स्नान की आलौकिक तस्वीरों में उत्साह और जोश दिखा, वहीं इस महास्नान से पहले, 'महासिद्ध ईशपुत्र' ने यज्ञानुष्ठान और अमृत कलश पूजन संपन्न किया, जिसमें विश्व शांति और धर्म स्थापना की प्रार्थना की।
बताते चलें कि, हिमालय की सिद्ध परंपरा के अनुसार समुद्र मंथन के समय देवी-देवता, सिद्ध, गंधर्व, नाग, असुर, ऋषि-मुनि, यक्ष, किन्नर, किरात आदि के साथ-साथ और अन्य कई दिव्य शक्तियां वहां उपस्थित थीं, इस महान आयोजन में भाग लेने के लिए उस समय हिमालय के महान तपस्वी सिद्धगण भी वहाँ उपस्थित थे, ये सभी महासिद्ध भगवान शिव के दिव्य तपस्वी और ज्ञान प्रसारक होते हैं, दिव्य समुद्र मंथन से अमृत कलश का प्रकट होना सबसे बड़ी और अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना थी, लेकिन इसी समुद्र मंथन से कालकूट हालाहल विष भी निकला, जिसे भगवान शिव ने देवी-देवताओं के आग्रह पर, सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा के लिए स्वयं ग्रहण कर लिया, लेकिन जैसे ही भगवान शिव ने उस कालकूट विष का पान किया, तब हिमालय के सिद्धगण अत्यंत चिंतित हो उठे, माता पार्वती ने अपने हाथों से भगवान शिव के विष के कारण नीले पड़ चुके कंठ को स्पर्श कर उस विष को शांत किया और तभी से भगवन शिव नीलकंठ कहलाए, लेकिन जब समुद्र मंथन से अमृत कलश प्रकट हुआ, तब उसकी दिव्य अमृतमयी ऊर्जा सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो गई, देवता एवं असुर दोनों ही अमृत के प्रभाव से मोहित हो उठे, तब देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत अमृत कलश को उठाकर भागे, यह देखकर दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने असुरों को जयंत का पीछा करने और अमृत कलश को पुनः प्राप्त करने का आदेश दिया।
तब देवताओं और असुरों के मध्य अमृत कलश को लेकर बारह दिनों तक युद्ध चला, देवताओं के लोक के बारह दिन मनुष्यों के लिए बारह वर्षों के समान होते हैं, इसलिए महाकुम्भ का पर्व प्रत्येक 12 वर्ष बाद आता है, उस समय भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर असुरों को अपने रूप-सौंदर्य से मोहित कर लिया, दैत्य गुरु शुक्राचार्य जी ने असुरों को भगवन विष्णु के छल में न फँसने की चेतावनी दी, किंतु असुर मोहिनी के प्रभाव को सहन न कर सके और मोहिनी के मोहपाश में फँस गए, इस प्रकार देवताओं ने अमृत कलश प्राप्त कर लिया और उन्होंने अमृत का पान किया, केवल एक असुर राहु, जिसने छल से अमृत पान कर लिया था, लेकिन बाकि सभी असुर अमृत से वंचित रह गए, जब देवताओं ने अमृत पान कर लिया, तब अमृत कलश को देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर को सौंप दिया गया, हिमालय के सिद्धों की परंपरा के अनुसार यह कलश माघ माह में कुबेर जी को सौंपा गया।
इस लिए माघ माह की अमावस्या और पूर्णिमा का महत्त्व सर्वोच्च हो गया, भगवान शिव ने इस अमृत कलश का एक अमोघ कीलक यानि ढक्कन बनाया ताकि अमृत कलश खुल न सके, लेकिन अमृत कलश को देख कर हिमालय के महासिद्धों और ऋषि-मुनि गणों ने भगवान शिव से कहा देवताओं को अमृत मिल गया किन्तु आपको विष! और हमें कुछ भी नहीं? तब सिद्धगणों के आग्रह पर भगवान शिव ने अमृत कलश का ढक्कन खोल दिया और उसकी अमृतमयी ऊर्जा हिमालय के अनेक जलस्रोतों में प्रवाहित होने लगी, तब भगवान शिव ने सिद्धगणों व ऋषि-मुनियों को आदेश दिया कि वे इस दिव्य अमृत जल से स्नान करें और इस दिव्य जल का सेवन करें, सभी महासिद्धों और ऋषि-मुनियों ने भगवान शिव की स्तुति करते हुए, हिमालय की पवित्र जलधाराओं में स्नान किया और इस अमृत जल का आचमन किया, सभी जलस्रोतों में मानसरोवर झील को सर्वाधिक पवित्र माना जाता है, इसके अलावा हिमालय में स्थित पवित्र तीर्थ हंस कुंड भी इस पवित्र स्नान के लिए महत्वपूर्ण बताया गया, इसी हंसकुंड से तीर्थं नाम की नदी बहती है जिसमें ब्रह्म गंगा का वास है जो ब्रह्मा जी के कमण्डलु के जल से परिपूर्ण है, इसी कारण प्रत्येक पर्व पर तीर्थन नदी में स्नान महापुण्य प्रदान करने वाला होता है, दिव्य कुम्भ पर्व स्नान से दिव्य अमृत तत्व की प्राप्ति होती है, आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ मोक्ष की प्राप्ति के लिए यह स्नान महत्वपूर्ण होता है
ऐसे में सिद्ध योगी और कौलान्तक पीठ के पीठाधीश्वर महायोगी सत्येंद्र नाथ ईशपुत्र ने अपने भैरव, भैरवियों के साथ तीर्थन नदी में महास्नान किया विश्व शांति और धर्म स्थापना की प्रार्थना की, हर हर महादेव के नारे से पूरा हिमालय गूंज उठा